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Class 10th Hindi 17 February Subjective Question Answer 2025 Bihar Board

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By Justwell Education

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Class 10th Hindi 17 February Subjective

Class 10th Hindi 17 February Subjective Question Answer 2025 Bihar Board

मेरे दोस्त यदि आप भी 17 फरवरी के दिन हिन्दी का परीक्षा देने वाले है आपके लिए हिन्दी का वायरल प्रश्न उत्तर लेकर आ गए है आपलोग इस लेख को पूरा जरूर पढ़े और याद जरूर करे क्योंकि आपके परीक्षा के View Point से बनाया गया जो परीक्षा मे 100% लड़ने कि गारंटी है दोस्तो

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Class 10th Hindi 17 February Subjective

Class 10th Viral Hindi Subjective 

प्रश्न 1. हर बरस आविन्यों में कब और कैसा समारोह हुआ करता है ?

उत्तर- हर वर्ष आविन्यों में गर्मियों में फ्रांस और यूरोप का एक अत्यन्त प्रसिद्ध तथा लोकप्रिय रंग-समारोह हुआ करता है।

प्रश्न 2. लेखक आविन्यों किस सिलसिले में गया था? वहाँ उसने क्या देखा-सुना?

उत्तर- लेखक आविन्यों पीटर बुक का विवादास्पद ‘महाभारत’ की प्रथम प्रस्तुति के अवसर पर वहाँ गया था। इस समारोह में शामिल होने के लिए उसे आमंत्रित किया गया था। उस वर्ष वहाँ भारत केन्द्र में था। पत्थर की खदान में महाकाव्यात्मक वह भव्य प्रस्तुति हुई थी। कुमार गंधर्व एक आकर्विशप के बड़े आँगन में ‘डुमद्रुम लता-लता’ गाया था। इस समारोह ह के दौरान लेखक ने वहाँ के अनेक चर्च एवं पुराने स्थान को रंगस्थलियों में बदलने का सौन्दर्य देखा था।

प्रश्न 3. ला शत्रूज क्या है और वह कहाँ अवस्थित है? आजकल उसका क्या उपयोग होता है?

उत्तर- ला शत्रूज कार्यूसियन सम्प्रदाय का ईसाई मठ है। वह रोन नदी के दूसरी ओर आविन्यों का एक स्वतंत्र भाग वीलनव्व ल आविन्यों अर्थात् आविन्यों का नया गाँव या नई बस्ती है, जहाँ फ्रेंच शासकों ने पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए किला बनवाया था। आजकल इसका उपयोग रचनात्मक कार्यों में होता है। रंगकर्मी, रंग-संगीतकार, अभिनेता, नाटककार वहाँ अपना समय रचनात्मक काम करने में बिताते हैं।

प्रश्न 4. ला शत्रूज का अंतरंग विवरण अपने शब्दों में प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट कीजिए कि लेखक ने उसके स्थापत्य को ‘मौन का स्थापत्य’ क्यों कहा है ?

उत्तर- फ्रेंच शासकों ने पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए आविन्यों की नई बस्ती में किला का निर्माण किया। उसी में ‘लॉ शत्रूज’ नामक कार्यूसियन संप्रदाय का ईसाई मठ है। चौदहवीं सदी से फ्रेंच क्रांति तक इसका धार्मिक उपयोग होता रहा। यह संप्रदाय मौन में विश्वास करता था, इसलिए सारा स्थापत्य मौन सूचक है। इसी कारण लेखक ने इसे मौन का स्थापत्य कहा है।

प्रश्न 5. लेखक आविन्यों क्या साथ लेकर गया था और वहाँ कितने दिनों तक रहा? लेखक की उपलब्धि क्या रही?

उत्तर- लेखक आविन्यों जाते समय अपने साथ हिन्दी का टाइपराइटर, तीन-चार पुस्तके तथा संगीत के कुछ टेप्स’ ले गए थे। वहाँ लेखक उन्नीस दिनों तक रहा तथा इस अवधि में उन्होंने पैंतीस कविताएँ तथा सत्ताईस गद्य रचनाएँ कीं।

प्रश्न 6. ‘प्रतीक्षा करते हैं पत्थर’ शीर्षक कविता में कवि क्यों और कैसे पत्थर का मानवीकरण करता है?

उत्तर- ‘प्रतीक्षा करते हैं पत्थर’ शीर्षक कविता में कवि ने वैसे पत्थर का मानवीकरण किया है जो सदा शून्य भाव में रहता है। वह पत्थर सारे प्राकृतिक झंझावातों को सहते हुए उस व्यक्ति की प्रतीक्षा में लीन रहता है जो इस मौन पत्थर के मनोभावों का शब्द-चित्र खींचकर एक ऐसा स्वरूप प्रदान कर दे कि युग पर्यन्त उसकी चर्चा होती रहे। अतः कवि के कहने का भाव है कि कवि अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा द्वारा एक ऐसी रचना कर लेता है जो वर्ण्य-विषय के महत्त्व को बढ़ा देती है। तात्पर्य यह कि जब कवि पत्थर के समान दृढ़ता एवं निस्पृहता के साथ विषय-वस्तु की सच्चाई को उद्‌घाटित करता है तब एक नए युग का आरंभ होता है, ऐतिहासिक मूल का पता चलता है। अतः पत्थर ऐसे ही युगस्रष्टा की प्रतीक्षा करता है।

प्रश्न 7. आविन्यों के प्रति लेखक कैसे अपना सम्मान प्रदर्शित करता है?

उत्तर- लेखक आविन्यों के प्रति अपना सम्मान प्रकट करते हुए कहता है कि यह वही स्थान है जो फ्रांस का एक प्रमुख कलाकेन्द्र रहा है। पिकासो की विख्यात कृति को शीर्षक ‘ल मादरामोजेल द आविन्यों’ है। यथार्थवादी कवत्रियी आन्द्रे बेताँ, रेने शॉ और पाल एलुआर ने मिलकर लगभग तीस कविताएँ लिखी थीं। साथ ही, वहाँ के सुन्दर, निविड़, सघन, सुनसान, दिन व रात भर, पवित्रता और आसक्ति से युक्त वातावरण के कारण ही इतनी अल्पावधि में इतनी रचनाएँ की। यह पुस्तक उन सबकी स्मृति का दस्तावेज है। इन्हीं विशेषताओं के कारण लेखक ने आविन्यों के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित किया है।

प्रश्न 8. मनुष्य जीवन से पत्थर की क्या समानता और विषमता है?

उत्तर– मानव तथा पत्थर के जीवन में समानता यही है कि जिस प्रकार पत्थर धूप, पानी, हवा आदि अर्थात् गर्मी सर्दी प्राकृतिक प्रकोपों का धैर्य के साथ सहन करता है तथा मौन बना रहता है, उसी प्रकार मनुष्य को भी आने वाली समस्याओं का धैर्यपूर्वक सहन करना पड़ता है। इन झंझावातों से न तो पत्थर घबड़ाता है और न मनुष्य ही । तात्पर्य यह कि आग में तपकर सोना निखरता है तो परिस्थितियों से जूझकर मनुष्य का व्यक्तित्व विकास पाता है।

पत्थर तथा मनुष्य में विषमता यह है कि पत्थर निर्जीव, गतिहीन दृढ़ तथा युग पर्यन्त कायम रहता है, जबकि मनुष्य सजीव, प्राणवान्, मरणशील तथा अनुभवशील होता है। मनुष्य जीवन में आनेवाले उतार-चढ़ाव का अनुभव करता है। वह अपनी वाणी द्वारा अमूर्त्त को मूर्त्त में परिवर्तित कर देता है। वह अपनी भावना को भाषा द्वारा प्रकट कर साहित्यिक स्वरूप प्रदान करता है। वह अपनी कल्पनाशील प्रतिभा से पत्थर जैसे जड़ पदार्थ को युग विशेष का प्रतीक बना देता है। अतः पत्थर साधन है, मनुष्य साध्य ।

प्रश्न 9. इस कविता से आप क्या सीखते हैं ?

उत्तर– इस कविता के माध्यम से हमें शिक्षा मिलती है कि पत्थर की तरह हमें सदा अपने पथ पर दृढ़ रहना चाहिए। क्योकि जीवन का नाम ही समस्या है, जो समस्या से ऊब कर मार्गच्युत हो जाता है, उसके जीवन का मूल्य खत्म हो जाता है। जिस प्रकार पत्थर बिना किसी हलचल के सर्दी-गर्मी, ओला, बरसात आदि को सहते हुए दृढ़ रहता है. उसी प्रकार हमें धीर बने रहना चाहिए तथा उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करनी चाहिए।

प्रश्न 10. नदी के तट पर बैठे हुए लेखक को क्या अनुभव होता है?

उत्तर– नदी के तट पर बैठे हुए लेखक को लगता है कि जल स्थिर है और तर ही बह रहा है। इस संबंध में लेखक का कहना है कि जब कोई अपलक जलप्रवाह को देखता रह जाता है तो उस बहते प्रवाह के साथ वह तादात्म्य स्थापित कर लेता है अचार विचारमग्न हो जाता है, जिस कारण तट ही बहता प्रतीत होता है। इसीलिए लेखन कहता है कि नदी तट पर बैठना भी नदी के साथ बहना है। नदी के पास होना नदी होन है। अतः लेखक के कहने का भाव है कि व्यक्ति जिस परिवेश में होता है, वह उस परिवेश के साथ इस प्रकार घुल-मिल जाता है कि उसे बाह्य जगत से संबंध टूट जाता है और वह अपनी भावना के प्रवाह में बहने लगता है।

प्रश्न 11. नदी के तट पर लेखक को किसकी याद आती है और क्यों?

उत्तर– नदी के तट पर लेखक को विनोद कुमार शुक्ल की याद आती है, क्योंकि उन्होंने अपनी कविता में ‘नदी नेहरा लोगों’ से मिलने की बात कही है। लेखक का कहना है कि नदी किनारे रहने वाले ही नदी-चेहरा नहीं हो जाते बल्कि वे भी नदी-चेहरा हो जाते, जो नदी के किनारे बैठते हैं। तात्पर्य यह कि जो कोई नदी के किनारे बैठकर नदी को कल-कल, छल-छल करती धारा की मधुर ध्वनि का आनंद लेता है, वह भावुकतावश कल्पना लोक में विचरण करने लगता है अर्थात् उसके हृदय में अनुभूति की भावना प्रबल वेग में बहने लगती है। और रस सिक्त हृदय नदी की भाँति किसी को अनदेखी नहीं करता, अपितु सबको समान रूप में काव्य-रस से अभिसिंचित करता है।

प्रश्न 12. नदी और कविता में लेखक क्या समानता पाता है?

उत्तर– लेखक का कहना है कि नदी के समान ही कविता सदियों से हमारे साथ रही है। जैसे नदी में न जाने कहाँ-कहाँ से जल आकर मिलते हैं और विलीन होते रहते हैं तथा सागर में समाहित होते रहते हैं, वैसे ही, कविता में भी न जाने कहाँ से कैसी-कैसी बिम्बमालाएँ, शब्द भंगिमाएँ, जीवन छवियाँ तथा प्रतीतियाँ आकर मिलती है और तदाकार होती रहती है। जैसे नदी जल से रिक्त नहीं होती, वैसे ही कविता भी शब्द से रिक्त नहीं होती। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार नदी का जल गतिशील रहता है, उसी प्रकार कवि या लेखक के हृदय में विभिन्न प्रकार के विचार उठते रहते हैं। यही नदी और कविता में लेखक समानता पाता है।

प्रश्न 13. किसके पास तटस्थ रह पाना संभव नहीं हो पाता और क्यों ?

उत्तर– लेखक का मानना है कि नदी तथा कविता के पास तटस्थ रहना इसलिए संभव नहीं हो पाता, क्योकि व्यक्ति अपनी भावुकता अथवा खुलेपन के कारण उसकी अभिभूति अर्थात् हृदय में उठ रही भावनाओं से बच नहीं पाता। अतः लेखक के कहने का भाव है कि जब किसी को सौन्दर्यानुभूति होती है, तब वह उस अनुभव को शब्द के साँचे में ढालकर मूर्त रूप प्रदान करने के लिए विवश हो जाता है। ठीक उसी प्रकार नदी जल पाती है तो वह प्रवाहित होने के लिए विवश हो जाती है। इसीलिए लेखक कहता है कि नदी के पास तटस्थ रहना संभव नहीं है, क्योंकि नदी की आभा के समान ही हमारे चेहरे पर कविता की चमक आती है।

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